गुरु नानकदेव धर्मप्रचार करते हुए उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के एक गाँव में पहुँचे। उनके साथ भाई मरदाना भी थे। गाँवे वाले संत-महात्माओं के महत्त्व अनभिज्ञ थे।
उन्होंने दोनों को रात में आश्रय देने से इनकार कर दिया। गाँव के बाहर एक कोढ़ी कुटिया में रहता था । उसे गाँव वालों ने निकाल दिया था। उसने दोनों साधुओं को जाते देखा, तो हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनसे अपनी कुटिया में ठहरने की गुजारिश की ।
सवेरा होते ही कोढ़ी ने गुरुजी से कहा, ‘बाबा, गाँव वाले मुझसे घृणा करते हैं। कहते हैं कि मेरे शरीर से निकल रही दुर्गंध से अन्य गाँव वालों को भी यह रोग हो जाएगा । आप बताएँ कि मेरा कल्याण कैसे हो?”
गुरुजी के मुख से सहसा निकला, ‘जीओ तपत है बारोबार, तप-तप खपै बहुत बेकार जो तन बाणी बिसर जाए, जिओ पक्का रोगी बिललाए । ‘
गुरुजी की पवित्र वाणी सुनकर कोढ़ी उनके चरणों में गिर गया और उनके आशीर्वाद से वह भला-चंगा हो गया । गाँव वालों को जब पता चला कि वे दोनों सिद्ध संत हैं, जिन्होंने कोढ़ी को स्वस्थ कर दिया है, तो वे भागते-भागते कुटिया में पहुँचे और गुरु नानकदेवजी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।
गुरुजी ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा, ‘किसी भी रोगी घृणा न करके उसके प्रति दयावान बनना चाहिए।’ गुरुजी के आदेश से गाँव वालों ने धर्मशाला और सरोवरों का निर्माण कराया। आज वह जगह गुरुद्वारा ‘कोढ़ीवाला धार साहिब’ श्रद्धा का केंद्र है ।